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मा त्वा॑ तपत्प्रि॒यऽआ॒त्मापि॒यन्तं॒ मा स्वधि॑तिस्त॒न्व᳕ऽआ ति॑ष्ठिपत्ते। मा ते॑ गृ॒ध्नुर॑विश॒स्ताति॒हाय॑ छि॒द्रा गात्रा॑ण्य॒सिना॒ मिथू॑ कः ॥४३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा। त्वा॒। त॒प॒त्। प्रि॒यः। आ॒त्मा। अ॒पि॒यन्त॒मित्य॑पि॒ऽयन्त॑म्। मा। स्वधि॑ति॒रिति॒ स्वऽधि॑तिः। त॒न्वः᳖। आ। ति॒ष्ठि॒प॒त्। ति॒स्थि॒प॒दिति॑ तिस्थिपत्। ते॒। मा। ते॒। गृ॒ध्नुः। अ॒वि॒श॒स्तेत्य॑विऽश॒स्ता। अ॒ति॒हायेत्य॑ति॒हाय॑। छि॒द्रा। गात्रा॑णि। अ॒सिना॑। मिथू॑। क॒रिति॑ कः ॥४३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:25» मन्त्र:43


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को आत्मादि पदार्थ कैसे शुद्ध करने चाहियें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् (ते) आप का जो (प्रियः) प्रीति वा आनन्द देनेवाला वह (आत्मा) अपना निज रूप आत्मतत्त्व भी (अपियन्तम्) निश्चय से प्राप्त होते हुए (त्वा) आप को (अतिहाय) अतीव छोड़ के (मा, तपत्) मत संताप को प्राप्त हो (स्वधितिः) वज्र (ते) आप के (तन्वः) शरीर के बीच (मा, आतिष्ठिपत्) मत स्थित करावे, आप के (छिद्रा) छिन्न-भिन्न (गात्राणि) अङ्गों को (अविशस्ता) विशेष न काटने और (गृध्नुः) चाहनेवाला जन (मा) मत स्थित करावे तथा (असिना) तलवार से (मिथू) परस्पर मत (कः) चेष्टा करे ॥४३ ॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को चाहिये कि अपने-अपने आत्मा को शोक में न डालें, किसी के ऊपर वज्र न छोड़ें और किसी का उपकार किया हुआ न नष्ट किया करें ॥४३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैरात्मादयः कथं शोधनीया इत्याह ॥

अन्वय:

(मा) निषेधे (त्वा) त्वाम् (तपत्) तपेत् (प्रियः) यः प्रीणाति कामयत आनन्दयति वा (आत्मा) स्वस्वरूपम् (अपियन्तम्) योऽप्येति तम् (मा) (स्वधितिः) वज्रः (तन्वः) शरीरस्य मध्ये (आ) (तिष्ठिपत्) समन्तात्स्थापयेत् (ते) तव (मा) (ते) तव (गृध्नुः) अभिकाङ्क्षकः (अविशस्ता) अविच्छेदकः (अतिहाय) अत्यन्तं त्यक्त्वा (छिद्रा) छिद्राणि (गात्राणि) अङ्गानि (असिना) खड्गेन (मिथू) मिथः (कः) कुर्यात्॥४३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वँस्ते प्रिय आत्माऽपियन्तं त्वा त्वामतिहाय मा तपत्, स्वधितिस्ते तन्वो मा तिष्ठिपत्, ते छिद्रा गात्राण्यविशस्ता गृध्नुर्मा तिष्ठिपदसिना मिथू मा कः ॥४३ ॥
भावार्थभाषाः - सर्वैर्मनुष्यैः स्व स्व आत्मा शोके न निपातनीयः, कस्याप्युपरि वज्रो न निपातनीयः, कस्याप्युपकारो न विच्छेदनीयश्च ॥४३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व माणसांनी आपापल्या आत्म्याला शोकातूर करू नये. कुणावरही वज्र सोडू नये. एखाद्याने उपकार केल्यास कृतघ्न बनू नये.